Indian Police : भारत के थाने का एक काला सच - इस देश में हर साल औसतन 25 लाख लोग पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराते हैं, मगर इनमें से आधे से ज़्यादा की FIR ही नहीं लिखी जाती है !
लोगों की बात सुनने की बजाय जिम्मेदारी से भाग रहे है गुजरात के IPS अधिकारी, DGP ने अपने सरकारी मोबाइल फोन पर सवाल कर रहे पत्रकार को ब्लॉक कर दिया, DGP को देख कर जिला स्तर पर SP भी यही कर रहे हैं, वे ट्रैफिक जैसे आम मुद्दे भी नहीं सुनते
WND Network.Gandhidham (Kutch) : आज़ादी के ७५ साल के बाद भी आज भारत में पोलिस की व्यवस्था अंग्रेजो से भी ज्यादा बदतर है। यह इस लिए कहना पद रहा है की, NCRB की वर्ष २०२३ की रिपोर्ट के अनुसार आज भी देश में हर साल औसतन 25 लाख लोग पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराते हैं - मगर इनमें से आधे से ज़्यादा की FIR ही नहीं लिखी जाती है। इतना ही नहीं जिस गुजरात राज्य के मॉडल को आदर्श बता कर केन्द्रमे भाजपा की सरकार सत्ता बनाये हुए है वहा तो हालात कर भी खराब है। आम आदमी को छोड़िये, यहाँ तो ट्रैफिक जैसे मामले पर जिला स्तर पर SP रेंक के अधिकारी बात सुनंने की बजाय अपने सरकारी फोन पर सवाल करने वाले पत्रकार को ब्लॉक किये हुए है। एसपी का हौसला इस लिए बढ़ा है की राज्य का पुलिस का मुखिया DGP भी यही कर रहे है।
X सोसियल मिडिया पर चाय, इश्क और राजनीति नाम के एक टवीटर हेंडल पर भारतीय पुलिस व्यवस्था में कया चल रहा है उस के बारे में बताया गया है। एक थानेदार को लिखे गए खत में लिखा गया है की, आप इस इस ख़त को मत पढ़िएगा। क्योंकि पढ़ने की आदतें उन लोगों में होती हैं जो इंसाफ़ करते हैं, और आपके लिए तो हर फ़रियादी एक ग्राहक है, हर अपराधी एक मौक़ा - और हर वर्दी, बस एक दुकान। मैं नहीं जानता कि आप किस कुर्सी पर बैठे हैं, मगर मैं जानता हूँ कि उस कुर्सी के नीचे हज़ारों शिकायतें दबी हैं - जिन पर आप रोज़ अपनी बूटों की ठोकर मारते हैं। किसी की बहन का बलात्कारी आपकी जेब में नोटों की गर्मी छोड़ गया, तो किसी ग़रीब का घर एक बिल्डर ने गिरवा दिया - बस इसलिए क्योंकि वो थाने का "भाई" है।
आपके दरवाज़े पर एक बाप आता है - जिसके बेटे को झूठे केस में फँसाया गया है। आप उसकी जेब देखते हैं, उसकी आँखें नहीं। आपके कमरे में एक लड़की आती है - जो छेड़छाड़ से तंग है। आप उसकी शिकायत नहीं, उसकी देह देख लेते हैं। क्या यही है आपके वर्दी की शान? मैंने झारखंड के एक गाँव में देखा है - कैसे वहाँ के पुलिसवाले खनन माफियाओं से पैसा लेकर हर महीने शराब और चिकन की दावत उड़ाते हैं। मैंने दिल्ली की सड़क पर देखा है - कैसे एक रिक्शेवाले को सिर्फ़ इसलिए पीटा गया क्योंकि उसने "साहब" की गाड़ी को रास्ता नहीं दिया।
आप कहेंगे, "सब पुलिस ऐसे नहीं होते"। बिलकुल नहीं। मगर जो अच्छे हैं, वो बुरे वालों के खिलाफ़ खड़े क्यों नहीं होते? 2022 में, Transparency International की रिपोर्ट कहती है कि भारत के 42% नागरिकों ने माना कि पुलिस ने उनसे रिश्वत मांगी। और ग्रामीण इलाकों में ये संख्या 55% तक जाती है।
क्या आपको शर्म नहीं आती साहब? आप तो गवाह को धमकाते हैं। आप तो अदालत की तारीख़ से पहले आरोपी को "समझा" देते हैं।
आप तो सिविल ड्रेस में जाकर प्रदर्शनकारियों को उठवा देते हैं, और बाद में कहते हैं - "कानून-व्यवस्था बनाए रखना ज़रूरी है।" आप कौन-सा कानून पढ़े हैं, जहाँ लाठी पहले चलती है और सवाल बाद में पूछे जाते हैं?
मैंने आपकी आँखों में कभी इंसाफ़ की रौशनी नहीं देखी, साहब - वहाँ सिर्फ़ सत्ता का अहंकार दिखा है। आपको शायद लगता है कि ये कुर्सी आपको खुदा बना देती है। मगर सच ये है कि ये कुर्सी आपको एक दलाल बना देती है - जो अपराध और कानून के बीच बैठा दलाल है।
आप तो उन बच्चों को भी उठा लेते हैं जो सोशल मीडिया पर सरकार की आलोचना करते हैं। आपका संविधान से कोई रिश्ता नहीं, साहब - आपका रिश्ता सिर्फ़ हुक्म से है। और जब हुक्म ऊपर से आता है, तो आप नीचे के इंसानियत को रौंद देते हैं।
क्या आपको पता है कि 2017 से 2023 तक भारत में 500 से ज़्यादा लोग पुलिस कस्टडी में मरे हैं? और इनमें से केवल 25% मामलों में चार्जशीट दाख़िल हुई।[स्रोत: भारत की संसद में गृह मंत्रालय का जवाब]
मगर क्या फ़र्क़ पड़ता है, साहब? किसी गरीब की लाश से आपकी सैलरी नहीं कटती। पुलिस रिफॉर्म्स की बात 1979 से चल रही है - मगर आज तक पूरी तरह लागू नहीं हुई। क्यों? क्योंकि आप नहीं चाहते कि जनता को जवाब देने की आदत डाली जाए।
आपको जवाब देना पसंद नहीं, सवाल करना पसंद नहीं - आपको बस आदेश पसंद हैं। कभी सरकार का आदेश, कभी नेता का इशारा, और कभी किसी धन्नासेठ की मुस्कान। और हाँ, आपके थाने की दीवारों में साउंडप्रूफ रूम होते हैं - ताकि चीखें बाहर न आएं। (गुजरात में भी कमोबेश यही हो रहा है)
प्रिय थानेदार साहब, आप इस देश की सबसे ज़रूरी संस्था हैं। अगर आप ईमानदार हो जाएँ - तो क्रांति आ सकती है। मगर आप ही सबसे बड़ा डर हैं - जो इंसाफ़ माँगने वाले को चुप करा देता है।
मैं आपको आख़िरी बार नहीं, पहली बार ये ख़त लिख रहा हूँ - क्योंकि मैं चाहता हूँ कि एक दिन आप ये पढ़ें, और आपको अफ़सोस हो। अफ़सोस, कि आपने उस वर्दी को गंदा किया - जिसे पहनने का सपना आज भी लाखों बच्चे देखते हैं। इसी उम्मीद में, कि एक दिन थाने में दाख़िल होते वक़्त डर नहीं, भरोसा महसूस होगा।
गुजरात कच्छ के समाख्याली रोड पर घंटों ट्रैफिक जाम के बावजूद एसपी को कोई परवाह नहीं, DGP से लेकर SP तक सब चुप : राज्य में गंभीर घटनाएं तो ठीक लेकिन गुजरात पुलिस ट्रैफिक जाम जैसी समस्याओं को लेकर कुछ नहीं कर रही है। यदि कोई उनका ध्यान इस ओर आकर्षित करता है तो मामले को सुनने के बजाय शिकायत करने वाले व्यक्ति को उनके सरकारी फोन पर ब्लॉक कर दिया जाता है। और ये कोई आम पुलिसवाला नहीं बल्कि एक IPS स्तर के अधिकारी कर रहे है। गुजरात के पूर्व कच्छ के SP ऐसे किसी भी व्यक्ति को ब्लॉक कर देते हैं जो उनसे सवाल पूछता है या शिकायत करता है जो उन्हें पसंद नहीं है। गांधीधाम के एसपी को ऐसा करने की हिम्मत इसलिए है क्योंकि राज्य के पुलिस प्रमुख डीजीपी ऐसा कर रहे हैं। DGP प्रश्न करने वाले, उन को नापसंद लोगो को अपने सरकारी मोबाईल फोन पर ब्लॉक किये हुए है। मुख्यमंत्री के पास गृह विभाग है, लेकिन वे कुछ नहीं बोल रहे हैं। गृह राज्य मंत्री भी इस घटना से विचलित नहीं हो रहे हैं। बल्कि सोसियल मिडिया पर रील्स बनाने में मशरूफ है। ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि राज्य की जनता किससे शिकायत करे। राज्य का हाईकोर्ट भी कई बार विभिन्न मामलों में गुजरात पुलिस को फटकार लगा चुका है। गुजरात के DGP विकास सहाय की नियत के बारे में कोई शक नहीं। DGP का ईमानदार और सख्त होना ठीक है, लेकिन अगर इससे राज्य की जनता को फायदा नहीं होता और उनकी समस्याएं हल नहीं होतीं, तो ऐसी सख्ती और ईमानदारी का क्या फायदा ? कुछ दिन पहले ही गुजरात के गांधीनगर में पुलिस भवन में जो कुछ भी हुआ वह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है।
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