गुलज़ार की नज़्म 'सरहद के उस पार से कुछ महेमान आये है' पोस्ट पढ़कर आधी रात को जाग गए थे BSF के कमांडेंट प्रमोद कुमार
'चड्डी पहने फूल खिला है' - जाने माने शायर, पटकथा लेखक, फिल्म डायरेक्टर 'चांद' के गुलज़ार आज 90 के हुए, वह शायद अकेले ऐसे गीतकार हैं, जिन्होंने फिल्मों के गीत और पटकथा लिखते हुए जीवन में आने वाली परेशानियों और सभ्यता के सवाल से जूझने की कोशिश की
WND Network.Bhuj (Kutch) : अपनी कविताये और नज़्म में शब्दों का अद्भुत चयन और वजन रखने वाले गुलज़ार सा'ब का आज बर्थ डे है। बात 'चड्डी पहने फूल खिला है' की हो या बात हो 'चाँद' की, गुलज़ार ने अपने अनोखे अंदाज़ से शब्दों को संजोया है। वैसे तो गुलज़ार और उन की लेखनी की बाते करना 'सूरज को दिया दिखाने' जैसा है। आज आप को उनकी एक नज़्म के बारे में बताना है। जिस में उन्होंने 'सरहद पार से आये कुछ महेमानो' के बारे में लिखकर अपने बचपन के समय में देखे बंटवारे के दर्द को महसूस कर ने कोशिश की थी। उन की यह नज़्म का ही असर मानो या कुछ और, मगर पढ़ कर BSF के एक कमांडेंड आधी रात को जाग गए थे।
यह बात वर्ष २००९ की है। जब यह लिखने वाला गुजरात के कच्छ में एक अखबार में बतौर चीफ रिपोर्टर काम कर कर रहा था। उस वक्त कच्छ के गांधीधाम में बॉर्डर की निगरानी के लिए BSF की ११वी बटालियन तैनात थी। प्रमोद कुमार इस बटालियन के कमांडेंट थे। डिफेन्स और बॉर्डर रिपोटिंग के दौरान एक दूसरे के परिचित होने के नाते कमांडेंट प्रमोद कुमार से अक्सर बातचीत होती रहती थी। एक रात जब प्रमोद कुमार को गुलज़ार साहब की लिखी हुई नज़्म SMS के जरिये (उस वक्त वॉट्सऐप जैसे एप नहीं हुवा करते थे) टुकड़ो में "सुबह सुबह एक खवाब के दस्तक पर दरवाजा खोला, तो देखा सरहद पार से कुछ महेमान आये हुए है" भेजी थी। उस वक्त उन्हें शायद ऐसा लगा होगा की, लिखने वाला यह कहना चाहता है की, वाकई में कच्छ की सीमा पार पार पाकिस्तान से कुछ लोग भारत में घुस आये है। अब इसे आप गुलज़ार साहब की नज़म की ताकत कहो या फिर कुछ और, ऐसे थी गुलज़ार के नाम मशहूर सम्पूर्ण सिंह कालरा की लेखनी।
गुलज़ार साहब अकेले ऐसे गीतकार हैं, जिन्होंने फिल्मों के गीत और पटकथा लिखते हुए जीवन में आने वाली परेशानियों और सभ्यता के सवाल से जूझने की कोशिश की। उन्होंने हिंदुस्तान के बंटवारे का मंजर देखा हैवह 7-8 साल के थे, तब वह पाकिस्तान के दीना से दिल्ली में अपने पिता के साथ आकर बसे। आज कुछ लोग अपने हिस्से की राजनीती की रोटियां शेकने के लिए 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस' के रूप में याद कर रहे है जब की गुलज़ार की रचनाओं में रचनाओं में ऐसा नहीं है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उनके पिता ने उनकी इस तरह से परवरिश की, जिससे उनके जेहन में कोई कड़वाहट नहीं आई। उस कड़वाहट को भी उन्होंने प्रेम और सौहार्द बनाकर प्रस्तुत किया है ।
गुलज़ार साहब उम्र के उस पड़ाव पर है कि, उन्हें अधिक से अधिक आराम की जरूरत है। लेकिन वह किसी महफ़िल में होते हैं तो उनकेचाहने वाले उन्हें घेर लेते हैं। वह एक- एक व्यक्ति का अभिवादन स्वीकार किए बगैर नहीं हटते। सब के साथ फोटो खिंचवाते हैं। हर रिश्ते के लिए उनके पास जगह हैं। उनकी सबसे बड़ी बात यह है कि उनके पास कोई चला जाए तो उसे छोटे होने का एहसास नहीं कराते, शायद यही बात उन्हें बड़ा बनाती है।
चाँद के गुलज़ार या गुलज़ार का चाँद ? : उर्दू शायरी में तो चांद को महबूब का प्रतीक बना कर अपनी बातों को कहने की पुरानी रवायत मशहूर है। लेकिन गुलज़ार साब ने चांद को अपनी ग़ज़लों और नज़्म में रोटी तक बना दिया है। उन्होंने कभी चांद को खिलौना बना दिया या तो कभी नाव और दोस्त भी बना दिया। चांद उन का रहगुजर है, उनका हमसाया है जो हमेशा उनके साथ चलता रहा है। चांद उनके साथ लड़ने-झगड़ने वाला साथ है। गुलजार साहब ने अपनी मां का चेहरा नहीं देखा था। बहुत कम उम्र में उनकी मां नहीं रहीं। ऐसा लगता है कि वह चांद में अपनी मां के चेहरे को तलाशते रहते हैं।